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थपथपाये पीठ कोई अच्छा लगता है,
झूठी हो तारीफ कोई अच्छा लगता है,
खुद मे भरे विकार, हैं गन्दे मेरे विचार,
दोष जमाने का देना अच्छा लगता है।
थपथपाये पीठ कोई अच्छा लगता है।।
कैसे कह दूं कि मेरे मन में पाप नहीं,
सच है यारों कि मन मेरा साफ नहीं,
छोटी है मेरी सोच, दिमाग में है मोच,
देखना पड़ोसी दुखी अच्छा लगता है।
थपथपाये पीठ कोई अच्छा लगता है।।
पैदा हुआ था मैं बजी खुशियों में ताली,
अब पराये धन से मनती होली दिवाली,
जैसे मिले संस्कार, वैसा करुं व्यवहार,
यही बच्चों को सिखाना अच्छा लगता है।
थपथपाये पीठ कोई अच्छा लगता है।।
मैं धर्म नही जानता, मैं कर्म नही मानता,
मजहबी उपदेशों में झूठ सच हूं छानता,
मैंने सीखा कत्लेआम, हुआ धर्म बदनाम,
करूं नफरत बुराई मुझे अच्छा लगता है।
थपथपाये पीठ कोई अच्छा लगता है।।
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