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हमारा विकास बाधक शत्रु है हमारा भ्रम

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हम कौन सा सुधार चाहते हैं और किस प्रकार जबकि कितने भ्रम और आकांक्षाओं के प्रति हम स्वयं झुकाव रखते हैं। हम अपने अन्दर स्थापित भ्रम और आकांक्षाओ पर नियन्त्रण करने में असफल हैं तो कैसे किसी अन्य को स्वयं में सुधार लाने के लिये मार्गदर्शन करने का प्रयास कर रहे हैं यह अनुचित है जिसका फल किसी प्रकार श्रेष्ठ नही हो सकता। हमारी अपनी देह जो स्वयं योद्धात्मक चरित्रो से सुसज्जित है पहले इनका शमन आवश्यक है अन्यथा इन चरित्रों के दोष का परिणाम बाधा उत्पन्न करने के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा नहीं हो सकता। मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु का नाम उसकी इच्छायें है जब तक इस इच्छा पर नियंत्रण नही होगा तब तक किसी भी कार्य को सही अथवा गलत किये जाने का निर्णय दूषित ही होगा और यह इच्छा तब तक अपनी मनमानी करेगी जब तक इसको आश्रय देने वाला भ्रम आपके अन्दर इच्छा पर नियंत्रण रख रहा है। मनुष्य का भ्रम सदैव विवेकहीन कार्यो के प्रति आकर्षित करता रहता है, अहंकार को प्रेरित करता रहता है बुद्धि को दूषित करता रहता है, स्वयं के अतिरिक्त किसी अन्य को श्रेष्ठ समझने में बाधक बन जाता है भ्रम और इच्छा साथ ही साथ रहते हुये एक दूसरे को बल पहुंचाते हैं जिसमें मनुष्य भ्रमित रहकर स्वयं को सबल तथा अन्य को निर्बल समझने लगता है यही उद्गेश्य है मनुष्य के अन्दर स्थापित इच्छारूपी भ्रम का। जब तक इसे समाप्त नही किया जाता तब तक मनुष्य के अन्दर शुद्धता की हल्की सी बूंद का भी जीवन में समाहित होना सम्भव नही है। यह भ्रम आपको सही गलत का फैसला नही करने देता और इच्छा तो प्रबल है जो आपको कार्य करते समय अपने वश में रखना चाहती है, इसका कार्य आपकी श्रेष्ठताओ को अभिमान में परिवर्तित करना और भ्रम के द्वारा उसका नाश कर देना। किसी पात्र को दिये गये दान का प्रचार प्रसार आपके पुन्य को समाप्त कर देता है आप क्या है क्या दे सकते है किसी को जिसे आपने दिया वह उसका अधिकार था पूर्व नियोजित था आप तो मात्र माध्यम है जो याचक को दान देने में मधयस्थ बने फिर किस बात का अहंकार कि मैंने उस गरीब को कुछ पैसे दिये, मैंने उसे भोजन कराया, मैंने यह काम किया वह काम किया, क्या है यह सब यही भ्रम है जो कहता है कि आपने किया जबकि आपने कुछ नही किया जब ऐसा मानेंगे तभी सार्थक होगा आपके मनुष्य योनि में जीवन प्राप्त करने का उद्देश्य अन्यथा भ्रम के अधीन रहने पर समस्त पुण्य कार्य क्षीण हो जायेंगे नष्ट हो जायेंगे तथा इच्छा सदैव की भॉति स्वच्छंद विचरण करते हुये प्रभावित करेगी आपकी नैतिक भावनाओ को अनैतिक रूप में परिवर्तित करने के लिये।

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