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होली रंगों के साथ बैर भाव भुलाने का त्यौहार है

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मनुष्य के जीवन में रंग और खुशियो को भरने वाला त्यौहार होली का आगमन हो गया है. भारत ही नहीं विदेशो में भी होली का त्यौहार हर्षोल्लाष के साथ मनाया जाता है. होली एक ऐसा त्यौहार है जिससे जुडी परम्पराओ का लाभ जनमानस को सदैव मिलता रहा है. होली के शुभ अवसर पर लोग आपसी बैर भाव भूलकर एक दूसरे से गले लगते है और बीती बातो को भुलाकर फिर से आपसी रिश्तो को एक मजबूत पहचान देते हैं. होली के एक दिन पूर्व होलिका दहन का आयोजन किया जाता है, होलिका दहन के सम्बन्ध में पौराणिक मत भी है जिसके अनुसार बहुत समय पहले हिरण्यकश्यप नाम का एक असुर राजा था जो हरि (भगवान) विरोधी स्वभाव का था और स्वयं को भगवान कहलाना और अपनी पूजा करवाना पसंद करता था, ऐसे ही असुर के घर जन्म लिया उसके पुत्र प्रह्लाद ने जो बाद में बहुत बड़ा भगवान का भक्त बना और असुर समुदाय का उद्धारक बना. प्रह्लाद जैसे जैसे बड़ा होता गया उसके अंदर भगवान के प्रति भक्ति और आस्था बढ़ती गयी, यहाँ ऐसी स्थिति आ गयी कि प्रह्लाद का पिता हिरण्यकश्यप स्वयं को भगवान मानता था और स्वयं की पूजा और जय जयकार कराना उसको पसंद था ऐसे में स्वयं उसका ही पुत्र पित्रद्रोही बनकर उभरा जो पिता से बिना डरे बिना किसी भय के निरंतर भगवान का नाम लिया करता था, यह बात हिरण्यकश्यप को बिलकुल पसंद नहीं आई और वह पुत्र का शत्रु बन गया, पुत्र की मृत्यु की कामना के वशीभूत होकर पुत्र को मारने के कई प्रयास किये उसने किन्तु ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद का कुछ भी अहित नहीं हुआ. हिरण्यकश्यप की एक बहन थी जिसका नाम था होलिका, होलिका को शिव जी का वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि से नहीं जलेगी इसलिए असुर हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ जाये जिससे प्रह्लाद की जल कर मृत्यु हो जाये, किन्तु “होइहि वही जो राम रचि राखा” वाली बात यहाँ चरितार्थ हुयी, प्रह्लाद को लेकर होलिका एक बहुत बड़े लकडियो की चिता पर बैठ गयी और चिता में आग लगा दी गयी, प्रह्लाद फिर भी नहीं घबराया और निरंतर हरि का जाप करता रहा, परिणाम यह हुआ की जब चिता जलकर समाप्त हुई तो लोगो ने देखा जिस होलिका को अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था वह जल कर मर चुकी थी और प्रह्लाद उसमे बैठकर खेल रहा था, नगरवासियो के लिए यह सब किसी चमत्कार से कम नहीं था और सभी ने एक साथ जय जयकार करते हुए प्रह्लाद को उठा लिया और सारे नगर में खुशिया मनाते हुए होली का आयोजन किया, तब से आज तक होली मनाने की परम्परा तो चल ही रही है साथ ही होली से एक दिन पहले होलिका दहन का कार्यक्रम भी आयोजित किया जाता है. होली के दिन प्रातःकाल से ही बच्चे और बड़े सभी उत्साहित होकर निकल पड़ते है अपने मित्रो के साथ होली का आनंद उठाने, तरह तरह के लाल, हरा, पीला, नीला रंग एक दूसरे पर डालकर आनंदित होते हैं, बच्चे पिचकारी और रंगो से भरे गुब्बारों को लेकर एक दूसरे पर डालते नहीं थकते हैं, शाम होने पर सभी नए वस्त्र पहनकर अपने पडोसी, मित्रो से होली मिलने जाते है और अबीर, गुलाल एक दूसरे को लगाते हुए उनसे गले मिलते है और पिछली बातो को (बैर भाव) भूलकर प्रेम और सौहार्द के साथ त्यौहार मनाते हुए गुझिया, पापड़ का आनंद उठाते हैं, अपने से बड़ो का पैर छूकर आशीर्वाद लेते है. सुबह से लेकर शाम तक होली त्यौहार पर छोटा हो या बड़ा सभी व्यस्त और प्रसन्न रहते हैं. गाँव में तो चौपाल पर सभी एकत्र होकर जब एक दूसरे पर रंग उड़ाते हुए होली से सम्बंधित गीत गाते हैं और हारमोनियम, ढोलक बजने पर जो माहौल बन जाता है उसका विश्लेषण शब्दों में नहीं किया जा सकता. होली रंगो और खुशियो सहित मनाते हुए बैर भाव भुलाने का प्रतीक है, किन्तु हमारे समाज में अधिकतर ऐसा देखने को मिलता है जो रंगो के स्थान पर कीचड़ का इस्तेमाल करते हैं, रंगो में केमिकल का इस्तेमाल करते है जो बाद में त्वचा की समस्या की साथ ही अन्य प्रकार से लोगो को समस्या उत्पन्न करता है, ऐसी होली से बचना चाहिए और होली के लिए ज्यादा से ज्यादा प्राक्रतिक रंगों का इस्तेमाल करना चाहिए. होली के त्यौहार पर लोग अक्सर शराब का सेवन करके नशे में हो जाते है जिसका असर उनके परिवार और बच्चो पर पड़ता है और त्यौहार भी खराब होता है, ऐसी स्थिति से बचना चाहिए. समाज में रहकर सामाजिक व्यवस्था के अनुसार किया जाने वाला प्रत्येक कार्य सामाजिक हित में होने के साथ ही स्वयं के हित में होता है, इसलिए सदैव इसका सम्मान किया जाना चाहिए और आने वाली पीढ़ी के लिए ऐसा सन्देश छोड़ना चाहिए जिससे आपका नाम स्वर्णाक्षर में न लिखा जा सके किन्तु कम से कम धूमिल होने से तो बच जाये. होली का त्यौहार सादगी से मनाते हुए स्वयं खुश रहिये और दुसरो को भी ख़ुशी दीजिये फिर देखिये कैसे खुशियो का रंग आपके जीवन में भर जाता है.

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